तू किसी किताब का कवर लगती है,
हक़ीकत नहीं
किताब में शायद तेरी कहानी का अंत मीठा हो,
हक़ीकत पता नहीं
आखिरी लोकल से तू मंजिल तक पहुँच जाएगी
कब तक पता नहीं
तू किताब में ही अच्छी लगेगी जहाँ
कंबल मिलने की उम्मीद होगी
हक़ीकत में पता नहीं
तेरी झोली में ना जाने क्या खजाना हो
या शायद नहीं,
ज्यों ये सिर्फ तकिया ही बन पाया
और तू बेफिक्र साड़ी ओढ़े
जिस्म की तपन छिपाती रही
ट्रेन में बैठे सभी घर पहुँच ही जाएँगे
तेरा पता नहीं
सभी लौटें है घर को
तेरा पता नहीं
तेरी दौलत एक साड़ी, एक चश्मा, बैग
से झाँकती एक तिरपाल की चट्टी
जहाँ तू रुके
वहीं घर तेरा,
…मेरी कहानी में तू यूँ ही नज़र आई
हक़ीकत पता नहीं ।