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The Thought Leakage

Writings of Expressions and Experiences

Youth

How can I stay forever young
For youth is my only asset
For all the dreams to live
I don’t wish a perennial life
But a forever youth.
Maybe in the memories I shall live
A forever youth
But am I making enough ?
Springs spent in keeping secrets
Summers in the anticipation of a confession
The monsoon brought the tears of regret
While the autumn spent in the remorse of all the passing seasons
And here no one to seek warmth in winter
But youth is no season to knock again

धीर

मेरे समक्ष है समर
किंतु मैं ढाल फेंक
हूँ खड़ा देख दृश्य
मैं खोजता जीत इसमें
जबकि मैंने अब तक
धरा नहीं एक पग.

मैं सोचता हूँ व्यर्थ ना
हो एक बाण भी यहां
लौटूँ ना लिए एक
कुंद धार भी यहाँ से,
मैं क्यों लड़ूं वो युद्ध
जोकि जीता जा सके
एक क्षण के धीर में

छवि

भले तुम गीत न हो किसी का
ना हो किसी की पहली प्रेम स्मृति
मेघ गर्जन पर शायद, ना हो तुम किसी की चेतना
किंतु, हो किसी की ढाल गर,
किसी का विश्वास हो
अभिमान सींचती हो किसी का
लगन की एक धूमिल छवि ही सही,
तो बस यह ही सही…

आस

जोर का गर्जन हुआ

किसी की नींद टूटी

प्रभात फूटा फिर, नए पल्लव खिले

तुम निशा में भी खिलोगे

बढ़ोगे आने वाली जेठ में भी

क्या हुआ जो फिर सुहानी बयार आए महीनों बीते

तुम पर बरसेगा नेह अपार

फिर आएगा वसंत, फिर खिलेंगे पुष्प चार

.. a rhyme a day

A rhyme a day
I said, would be enough.
But it is too much to ask for
With words drying out
Where do I dive to bring
Couplets sweet as first love
When I live with doubts
In my heart
If I know of a first love.
And how do I write
Tales of separation
When I find you distant
A feet apart

कई रंग दिल्ली

(साल 2020 में लगे पहले लॉकडाउन के दौरान ऑफिस जाते वक्त लिखा गया. 3 साल मुंबई में रहने के बाद अचानक ही 9 महीने दिल्ली में रहना पड़ा और यहीं के ब्यूरो ऑफिस से काम संभाला. दिल्ली-नोएडा रास्ते पर घने पेड़ों पर लगे नीले फूलों से सजे इस शहर के लिए – तब अधूरा छोड़ा, अब अधूरा ही पोस्ट कर रही हूँ.)

9 अप्रैल, 2020

जब आग नीले रंग में होती है तो तपिश सबसे ज्यादा होती है। लेकिन दिल्ली में अभी गर्मी ने इस तरह पैर नहीं पसारे कि उसे दिल्ली की गर्मी होने की उपमा दी जा सके। तो बताओ दिल्ली, ये किस विरह की आग में जल रही हो? क्या तुम्हे भी ट्रैफिक जैम की कमी खलने लगी? क्या तुम भी लोभी इंसानों का लोभ करने लगी हो? या ये खुशी के कुसुम हैं?

हाँ, तुम कहोगी कि मैं तो हर साल ऐसा कुछ रंग दिखाती हूँ, कभी सेमल, कभी अमलतास, कभी गुलमोहर और कभी इस तस्वीर वाले ना जाने कितने पेड़ जिनका नाम स्मृति में कभी रहा ही नहीं। ऐसे पेड़ जो तपती धूप में खिलकर वसंत को शर्मिंदा कर दें। तुम भी आज इठला रही हो कि कभी इनका नाम ना जानने की इच्छा वाले लोग शायद इस रंग को देखने के लिए तरस रहे हों।

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छोटे-छोटे किस्से

1.

एक कश्ती में मेरा ठिकाना
एक नदी जिसके पार है जाना
गर रुका मैं ठौर ठौर, तो सफ़र अधूरा
मंज़िल का आशिक़ कौन भला
मैं नगर नगर का दीवाना

2
दूरी ही तो है
बस जितनी तुम्हारी मुझसे है
उतनी मेरी तुमसे नहीं
कब तुम नज़दीक ही रहे
कब मैं दूर ही रही

3.

मैंने दूरी में जाना

क्यों किसी को होता है मंजूर

किसी की छाया बनना

मैं ना रहूँ तेरी नज़र के सामने

पर तू मेरी निगाह में रहे

तू मिले ना सही

तेरा मिलते रहना काफी है

4
किसी रोज़ तो तुम यूं याद आओ…
कि हर खत खोल शिकायत हम ये करें
कि याद तुम्हें हम आए क्यों ना,
कि खुद खो गए इतना
कि फिर भी तुम्हें पाए क्यों ना
कि क्यों इक बार मोहब्बत हमने भी की!

5
कोई पकड़ो रे मेरा छोर
नदिया कहे,
मैं सागर में डूबी जाऊं

6
एक सदी पहले, शायद मैं याद थी तुम्हे
हम उस एक उस मोहब्बत कायल हैं

7.
जेठ की बयार में मॉनसून का एहसास
शायद तुम नहीं
पिछले जनम का बिछड़ा प्यार भी भरसक तुम नहीं
कच्ची कैरी कहना जायज़ है
मधुर तराना कहना वाजिब है
मीलों प्यासे पथिक का
ठिकाना कहना काफी है
सही से है कि तुम वो सब हो
जो मैं नहीं

मुसाफ़िर और मंज़िल

छांव छांव जो चला मुसाफिर
कब मंज़िल तक पहुंचा है
जो चला मुसाफिर बिना रुके
वो कहां चैन से सोया है
उलझन में फिर थका मुसाफिर
चुनूं छांव या अथक चलूं
नहर किनारे सुस्ताऊं
या कुछ और कदम का धीरज जोडूं

बेसब्र निगाहें ढूंढ रहीं हैं
सही राह का एक भरोसा
कितनी दूर तक चले मुसाफ़िर
जो लगे पता ये डगर का धोखा

मील मील पर
दो गहरी गहरी सांस भरूं
बहती धार को सुना करूं
कुछ चिड़ियों से बात भी हो
कुछ पेड़ों से इस्तकबाल भी हो
पर यही सोच ना रुका मुसाफ़िर
कि थकने का है कुछ और मज़ा

यूं चला मुसाफ़िर कि ना साथ मिला
जब सफ़र बड़ा हो,
तो बोझ न लेना वाजिब है
पर ऐसा भी क्या कि
याद बस कदमों का हिसाब रहा
खुद का ही साहिल आप मिला
राह अंत पर समझा साथी कि
सब से कटा समुंदर आप मुसाफ़िर

October

As October goes to sleep
Some pretty evenings will perhaps be lost
in the mist of next month
Afternoons will become the new evenings
but how many will spare a noon for you?
For how many can you spare a noon?

While you are caught earning the month’s expense
The sun will no longer wait
As winter knocks the door,
who do you look forward for the evenings left?

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