छांव छांव जो चला मुसाफिर
कब मंज़िल तक पहुंचा है
जो चला मुसाफिर बिना रुके
वो कहां चैन से सोया है
उलझन में फिर थका मुसाफिर
चुनूं छांव या अथक चलूं
नहर किनारे सुस्ताऊं
या कुछ और कदम का धीरज जोडूं
बेसब्र निगाहें ढूंढ रहीं हैं
सही राह का एक भरोसा
कितनी दूर तक चले मुसाफ़िर
जो लगे पता ये डगर का धोखा
मील मील पर
दो गहरी गहरी सांस भरूं
बहती धार को सुना करूं
कुछ चिड़ियों से बात भी हो
कुछ पेड़ों से इस्तकबाल भी हो
पर यही सोच ना रुका मुसाफ़िर
कि थकने का है कुछ और मज़ा
यूं चला मुसाफ़िर कि ना साथ मिला
जब सफ़र बड़ा हो,
तो बोझ न लेना वाजिब है
पर ऐसा भी क्या कि
याद बस कदमों का हिसाब रहा
खुद का ही साहिल आप मिला
राह अंत पर समझा साथी कि
सब से कटा समुंदर आप मुसाफ़िर